मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की
दिल्ली की हवा जितनी जहरीली इस साल हुई है, वैसी पहले बहुत कम हुई है। पहले न तो दिल्ली में इतनी कारें, इतने जनरेटर, इतने कल-कारखाने, इतने लोग होते थे और न ही आस-पास के किसान इतनी पराली या भूसा जलाते थे। जो लोग दिल्ली में रहते हैं, हर साल इन दिनों इस तरह की दमघोंटू हवा को वे बर्दाश्त करते रहते हैं। वे कर भी क्या सकते हैं ? अपने आप को वे हफ्तों तक अपने घरों में बंद तो नहीं रख सकते हैं।
मुझे इस साल की दिल्ली की हवा का दमघोंटूपन जरा ज्यादा ही सता रहा है, क्योंकि 10 दिन के लंदन-प्रवास की स्वच्छ हवा ने चेहरे पर रौनक और शरीर में विलक्षण स्फूर्ति फूंक दी थी। अब तो यहां हाल यह है कि सरकारी अस्पतालों में मरीजों का तांता लगा हुआ है। बच्चों के स्कूलों की छुट्टी कर दी गई है। लोग मुंह और नाक पर पट्टियां बांधे घूम रहे हैं। सरकारी दफ्तर अब 9.30 की बजाय 10.30 पर खुलने लगे हैं। कई कारखाने बंद कर दिए गए हैं। पराली जलानेवाले किसानों पर जुर्माना ठोक दिया गया है।
लोगों को ज्यादा वक्त घरों में रहने की हिदायत दी जा रही है। सड़कों पर पानी छिड़का जा रहा है। लोग कई पौधों के गमले उठा-उठाकर घरों में रख रहे हैं ताकि उन्हें शुद्ध हवा मिल सके। जिनके पास पैसे हैं, वे वायुशोधक मशीनें अपने घरों में लगा रहे हैं। इस समय प्रदूषण का स्तर सामान्य से 10 गुना ज्यादा हो गया है। दिल्ली देश की राजधानी है, इसीलिए इस प्रदूषण पर इतना शोर मच रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे के विरुद्ध आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं लेकिन क्या उन्हें पता नहीं कि दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित 15 शहरों में से 12 हिंदुस्तान में हैं।
शुद्ध पानी के हिसाब से दुनिया के 122 देशों में भारत 120 वीं निचली सीढ़ी पर बैठा हुआ है। भारत में जहरीली हवा से मरनेवालों की संख्या 12 लाख से भी ज्यादा है। इस तरह के दर्दनाक आंकड़े धीरे-धीरे बढ़ते ही चले जाएंगे। सरकारें अपनी भरपूर कोशिश करेंगी कि इस प्रदूषण पर कुछ काबू करें लेकिन जब तक हम पश्चिम के उपभोक्तावादी समाज की नकल करते रहेंगे और अपनी भौतिक और यांत्रिक सुविधाओं को सीमित नहीं करेंगे तो वही होगा कि मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की।